By Rajesh Dobriyal
आज सुबह मैं दूध लेने गया तो मुझे रावत जी (जिनसे हम दूध लेते हैं) के घर के आंगन में अनार और अन्य जले हुए पटाखों के अवशेष दिखे. इससे पहले रात को देहरादून के मोहकमपुर स्थित एक अपार्टमेंट में भी लोग पटाखे जलाते हुए दिखे. सोम और मंगलवार की शाम से ही पटाखों की आवाज़ आने लगी थी जो रात तक आती रही. इस बार पिछले साल के मुकाबले बिजली की लड़ियां भी ज़्यादा जली हुई दिखीं.
बेशक इगास-बग्वाल को अब उत्तराखंड और उत्तराखंडियों ने एक त्यौहार के रूप में अपना लिया है और यह दिल्ली से देहरादून तक सरकारी कार्यक्रमों तक महदूद नहीं रह गया है.
ठीक है कि इगास उत्तराखंड का पारंपरिक त्यौहार है लेकिन यह लगभग भुला दिया गया था और अब चूंकि यह पुनर्जीवित हो गया है तो यह विचार करना तो बनता है कि यह हुआ कैसे…
एक पहल, जो हो गई सफल
मैं अकेला ही चला था जानिबे मंज़िल मगर, हमसफ़र आते गए कारवां बनता गया…
बतौर राज्यसभा सांसद अनिल बलूनी ने 2018 में इस पर्व को पुनर्जीवित करने और राष्ट्रीय स्तर पर पहचान दिलाने का अभियान शुरू किया था. उनका उद्देश्य उत्तराखंड की इस अनोखी परंपरा को फिर से स्थापित करना और प्रवासी उत्तराखंडियों को अपनी जड़ों से जोड़ना था. 2018 में बलूनी ने पौड़़ी में अपने गांव नकोट में इगास मनाई और लोगों से भी अपने गांव आकर इगास मनाने का आह्वान किया.
दुर्भाग्य से अगले साल उन्हें कैंसर हो गया लेकिन उनके आग्रह पर भाजपा नेता संबित पात्रा और कई अन्य उनके गांव इगास मनाने पहुंचे थे. कैंसर को पराजित कर फिर सामाजिक, राजनीतिक जीवन में सक्रिय होने के बाद से बलूनी पिछले कुछ सालों से वह दिल्ली में अपने सरकारी आवास में इगास का भव्य आयोजन कर रहे हैं जिसमें पिछले साल गृहमंत्री अमित शाह, रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह समेत कई गण्यमान्य लोग शामिल हुए थे.
इस साल इस आयोजन में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी शामिल हुए और पूरे देशवासियों को इगास की बधाई दी.
यूं तो इगास इस साल ही जनमानस का त्यौहार बन गया है लेकिन प्रधानमंत्री की अपील के बाद अगले साल से इसके और वृहद रूप लेने की संभावना है.
सालों से मना रहे हैं इगास
राज्य आंदोलनकारी प्रदीप कुकरेती इस संभावना से इनकार नहीं करते कि इगास अब साल दर साल बड़े स्तर पर मनाई जाने वाली है. वह कहते हैं कि वह और उनके कुछ साथी सालों से देहरादून के शहीद स्मारक पर इगास मनाते आ रहे हैं लेकिन यह भी सही है कि इसने ज़ोर पिछले कुछ सालों में ही पकड़ा है.
कुकरेती कहते हैं कि पहले लोग उन्हें भैलो खेलता देखकर अचरज करते थे और पूछते थे कि ये लोग क्या कर रहे हैं. मोहल्लों में भी दो-चार घरों में ही दिए जलते दिखते थे लेकिन इस साल तो यह बड़े पैमाने पर हुआ है.
देहरादून में ही कई सामाजिक संस्थाओं ने बड़े पैमाने पर इगास-बग्वाल का आयोजन किया जिसमें हज़ारों की संख्या में लोग शामिल हुए. इसके अलावा पहाड़ों में भी इस बार बड़े पैमाने पर इगास मनाई गई है.
सोशल मीडिया पर सामूहिक रूप से और घरों में इगास मनाने के पोस्टों की भरमार है.
प्रदीप कुकरेती इस बात से भी इनकार नहीं करते कि अनिल बलूनी की कोशिशों के बाद इगास चर्चा में आया और नकोट से दिल्ली और फिर देहरादून के सीएम आवास तक होता हुआ लोगों के घरों तक पहुंच गया है. वह आशा जताते हैं कि उत्तराखंड की सांस्कृतिक पहचान के त्यौहार हरेला, फूलदेई और इगास आने वाले सालों में और धूमधाम से मनाए जाएंगे और दुनिया तक पहुंचेंगे.
ईमानदार कोशिश का अंतर
हमारे देश में कार्यक्रम मुख्यतः दो प्रकार के होते हैं. एक तो जनमानस के त्यौहार होते हैं और दूसरे सरकारी आयोजन. ज़्यादातर नेताओं के जन्मदिवस, बलिदान दिवस, महिला-बाल दिवस जैसे कार्यक्रम दशकों से आयोजित होने के बावजूद जनता के कार्यक्रम नहीं बन पाए हैं. ये या तो सरकारी खर्च पर आयोजित होते हैं और या फिर पार्टी विशेष इसमें अपने कार्यकर्ताओं को झोंकती हैं.
मेरी समझ में एक इगास ही एक ऐसा आयोजन रहा जो सरकारी बंगले से लोगों के घरों तक, पास-पड़ोस तक पहुंच गया है.
मुझे यह इसलिए भी उत्साहित कर रहा है क्योंकि यमुना से रिस्पना तक के पुनर्जीवन के सरकारी कार्यक्रम अरबों रुपये बहाने और पूरे के पूरे सरकारी अमले को झोंक देने के बाद भी सफल नहीं हो पाए लेकिन लगभग एक व्यक्ति की पहल सफल हो गई…
शायद अंतर ईमानदार कोशिश और अपनी जड़ों को समझने और उनसे जुड़ पाने का है… जिसमें पुनर्जीवन के बाकी कोशिशें नाकाम हो गईं.